परिचय​

:: परिचय ::

गुरुपरम्परा

माता श्रीमती जानकी देवी शुक्ल

आयुर्वेद बृहष्पति प्राणाचार्य पण्डित सुन्दरलाल जी शुक्ल

वैयाकरणशिरोमणि आचार्य विश्वनाथ जी त्रिपाठी

वैयाकरणशिरोमणि आचार्य विश्वनाथ जी त्रिपाठी

माता श्रीमती जानकी देवी शुक्ल

आयुर्वेद बृहष्पति प्राणाचार्य पण्डित सुन्दरलाल जी शुक्ल

वैयाकरणशिरोमणि आचार्य विश्वनाथ जी त्रिपाठी

वैयाकरणशिरोमणि आचार्य विश्वनाथ जी त्रिपाठी

प्राप्त सम्मान 

१. वेद वेदाङ्ग सम्मान – महर्षि सान्दीपनि राष्ट्रिय वेद विद्या प्रतिष्ठान उज्जयिनी द्वारा दिल्ली में आयोजित कार्यक्रम में प्रतिष्ठान के अध्यक्ष मानव संसाधन विकास मन्त्रालय के माननीय मन्त्री डॉ० मुरली मनोहर जोशी द्वारा दिनांक १४ अगस्त २००३ को व्याकरण विषय के लिये सम्मानित किया गया है।

२. CERTIFICATE OF HONOUR- भारत के महामहिम राष्ट्रपति डॉ० ए. पी. जै. अब्दुल कलाम द्वारा १५ अगस्त २००४ में आपको संस्कृत में निपुणता तथा शास्त्र में पाण्डित्य के लिये ‘सम्मान प्रमाण पत्र’ (CERTIFICATE OF HONOUR) दिया गया है।

३. राजकुमारी पटनायक सम्मान – १४ सितम्बर २००४ को प्रदेश के माननीय राज्यपाल महामना श्री पी. सी. सेठ के द्वारा भाषा के क्षेत्र में अप्रतिम योगदान के लिये राजकुमारी पटनायक सम्मान २००३ से अलंकृत किया गया है।

४. छत्तीसगढ़ राज्य अलंकरण सम्मान – १ नवम्बर २००७ को आपको छत्तीसगढ़ राज्य शासन द्वारा छत्तीसगढ़ राज्य अलङ्करण सम्मान से विभूषित किया गया है।

५. वाचस्पति उपाधि – २६.१२.२०१० को श्रीलालबहादुशास्त्री राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठम्, दिल्ली ने मानद उपाधि ‘वाचस्पति’ प्रदान की।

६. महामहोपाध्याय उपाधि – २४.३.२०११ को उत्तराखण्ड संस्कृत विश्वविद्यालय, हरिद्वार ने मानद उपाधि ‘महामहोपाध्याय’ प्रदान की।

७. संस्कृतात्मा सम्मान –  २१.२.२०१३ को संगमनेर महाविद्यालय ने ‘संस्कृतात्मा सम्मान’ प्रदान किया।

८. आचार्य रामयत्न शुक्ल सम्मान  – ५.८.२०१९ को उत्तरप्रदेश नागकूप शास्त्रार्थ समिति ने ‘आचार्य रामयत्न शुक्ल सम्मान’ प्रदान किया।

९. महाराष्ट्रराज्य​-महाकवि-कालिदास​-संस्कृत​-साधना-पुरस्कार – २०१९

१०. पूर्ण सरस्वती सम्मान – श्री गोकुल जन कल्याण समिति, भोपाल ने वर्ष २०२१ में पूर्ण सरस्वती सम्मान प्रदान किया।

११. डी. लिट्. की उपाधि से सम्मान – २८.३.२०२३ को अटलबिहारी विश्वविद्यालय, बिलासपुर ने ‘डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।

व्याकरणशास्त्र में क्रान्ति : ‘पाणिनीया पौष्पी प्रक्रिया’


भारत की संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृति है। इसका सारा वाङ्मय संस्कृत भाषा में निबद्ध है। संस्कृत भाषा को जाने बिना इसे नहीं जाना जा सकता, और इसे जाने बिना भारत और भारतीयता को नहीं जाना जा सकता। अतः हमारी पैतृक सम्पत्तियों में सबसे बहुमूल्य रत्न हमारी संस्कृतभाषा है। संस्कृत भाषा को जानने के लिये पाणिनीय व्याकरण का ज्ञान अनिवार्य है। लौकिक, वैदिक उभय शब्दों का साधक होने के कारण वेदों की रक्षा का उपायभूत पाणिनीय व्याकरणशास्त्र सारे वेदाङ्गों में प्रधान है।

विश्व में इस पाणिनीय व्याकरण को पढ़ने की दो पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक तो पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों के अर्थों को पाणिनीय अष्टाध्यायी के क्रम से ही पढ़ना। यह मार्ग महाभाष्य से प्रारम्भ होकर काशिकावृत्ति तक चलता है। स्वामी दयानन्द के मार्ग में भी यद्यपि अष्टाध्यायी को काशिका के क्रम से पढ़ाते हैं, इससे अष्टाध्यायी के सूत्रक्रम का ज्ञान तो हो जाता है, किन्तु प्रक्रिया के लिये यहाँ भी नामिक, आख्यातिक आदि ग्रन्थ बनाकर सिद्धान्तकौमुदी के समान लक्ष्यानुसारी क्रम का ही आश्रय लिया जाता है, इसलिये प्रक्रिया में यहाँ भी सिद्धान्तकौमुदी का ही अनुसरण है, नवीन कुछ भी नहीं। प्रक्रिया की जटिलता ज्यों की त्यों है, क्योंकि अष्टाध्यायी प्रक्रियाग्रन्थ है ही नहीं। पूरी अष्टाध्यायी को यथाक्रम रटकर भी एक भी शब्द सिद्ध नहीं किया जा सकता। अधिकार, अनुवृत्ति और सूत्रों का पूर्वापर विज्ञान’ अष्टाध्यायी’ के प्राण हैं। इन्हें एक बार’ अष्टाध्यायी’ से ही समझ लेने से’ अष्टाध्यायी’ का विज्ञान तो स्पष्ट हो जाता है, किन्तु प्रक्रिया में प्रवेश नहीं हो पाता है।

दूसरी पद्धति है प्रक्रियापद्धति, जिसका सर्वप्रामाणिक ग्रन्थ सिद्धान्तकौमुदी है। इसी को आधार बनाकर आगे शेखर आदि प्रौढ़ ग्रन्थ लिखे गये हैं। ये सिद्धान्तकौमुदी आदि प्रक्रियाग्रन्थ पहिले ‘प्रयोग’ को सामने रख लेते हैं। उस प्रयोग के लिये सारे सूत्र लाकर वहाँ खड़े कर देते हैं। इससे’ अष्टाध्यायी’ की व्यवस्था भग्न होती है, वृत्तियाँ रटनी पड़ती हैं और १२ वर्ष तक प्रयोग बनाते रहने पर भी प्रक्रिया का विज्ञान समझ में नहीं आता।

डॉ. पुष्पा दीक्षित ने लगभग ४० वर्षों के तप से ‘पाणिनीय अष्टाध्यायी’ के प्रक्रियाविज्ञान को स्पष्ट करने वाली एक ऐसी सर्वथा नवीन गणितीय विधि आविष्कृत की है, जिससे ‘ अष्टाध्यायी’ का समग्र प्रक्रियाविज्ञान चार मास में हृद्गत हो जाता है। पाणिनि के बाद से लेकर अभी तक ३५०० वर्षों में पाणिनि को किसी ने इस प्रकार व्याख्यात नहीं किया है। वस्तुतः पाणिनि का शास्त्र गणितीय विधि पर आश्रित है और पुष्पा दीक्षित ने उस गणितीय विधि का आविष्कार किया है।

यह वस्तुतः एक बहुत बड़ा क्रान्तिकारी कदम है कि उन्होंने परम्परा से चले आने वाले लकारों के प्रचलित अकारादि क्रम को तोड़कर पाणिनीयविज्ञानानुसार उसके दो हिस्से कर दिये हैं। कौमुदी पाणिनीय धातुपाठ के क्रम से धातुओं को लेकर एक एक धातु के दस दस लकार बनाती है। और सार्वधातुक आर्धधातुक प्रत्ययों को अलग अलग कर दिया है। पाणिनीय धातुओं में से एक भी धातु को कम किये बिना पाणिनीय धातुपाठ के सारे धातुओं को भी प्रक्रिया के क्रम से पुनर्व्यवस्थित करके उन्हें प्रक्रिया से सटा दिया है।

राष्ट्रिय स्तर की संस्कृत संगोष्ठियों में प्रतिभागिता तथा शोध पत्र


अखिल भारतीय स्तर की विभिन्न संगोष्ठियों में शताधिक शोध पत्रों का वाचन किया है। जिनमें से अनेक शोधपत्र प्रकाशित हैं। अखिल भारतीय प्राच्य विद्या सम्मेलन (आल इण्डिया ओरिएण्टल कान्फ़्रेन्स) जो प्रति दो वर्ष में राष्ट्र के भिन्न भिन्न स्थानों पर होता है,में नियमित सदस्य के रूप में सक्रिय भाग लेती हैं। पुष्पा दीक्षित ने प्रत्येक सम्मेलन में भाषा विज्ञान और व्याकरण पर नियमित रूप से शोधपत्र पढ़े हैं। दिल्ली, सागर, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ आदि देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आयोजित सेमीनार में आपकी सक्रिय प्रतिभागिता होती रही है।

 राष्ट्रिय स्तर के संस्कृत कवि समवायों में प्रतिभागिता


प्राय: सभी अखिल भारतीय संस्कृत कवि सम्मेलनों में आप आमन्त्रित रहती हैं। उल्लेखनीय है कि 13 वें विश्व संस्कृत सम्मेलन जो स्काटलैण्ड के एडिनबरा विश्वविद्यालय में आयोजित था उसमें काव्यपाठ के लिये भारत से 15 राष्ट्रिय संस्कृत कवियों का चयन किया गया था। उन १५ मूर्धन्य कवियों में एक नाम डॉ. पुष्पा दीक्षित का भी था।

संस्कृत के हित में सतत कार्य


पाणिनीय शोध संस्थान (कोसल संस्कृत समिति) की अध्यक्षा श्रीमती डॉ. पुष्पा दीक्षित संस्कृत भाषा के प्रति सर्वतोभावेन समर्पित हैं। आपका एक अपना लगभग १०००० पुस्तकों का पुस्तकालय है जिसमें संस्कृत वाङ्मय की पुस्तकें हैं जहाँ आकर शोधच्छात्र अपने विषयों से सम्बन्धित पुस्तकों का अवलोकन कर सकते हैं।

जन साधारण में संस्कृत की रुचि बढ़ाने के लिये, संस्कृत भाषा के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिये वे निरन्तर गीतापाठ, स्तोत्रपाठ तथा शुद्ध संस्कृत उच्चारण की शिक्षा स्थानीय लोगों को निःशुल्क देती रहती हैं।

रामायण, गीता और भागवत के प्रवचनों के माध्यम से भी आप लोगों को संस्कृत भाषा के प्रति जागरूक करती रहती हैं। आपका विश्वास है कि संस्कृत से ही भारत की पहिचान है। संस्कृत की रक्षा से ही राष्ट्र की रक्षा हो सकती है। अतः संस्कृत भाषा को जन जन तक पहुँचाना ही आपके जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।

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